Thursday, March 24, 2011

मैं


जिस्म के अन्दर पनपते सपनों के आगे
और 
जिस्म के बाहर सपनों के पीछे दौड़ते-भागते
सांसें कभी-कभी फूलने लगती हैं,
थक जाता हूँ मैं यूँ ही दौड़ते हुए,
इसलिए रुक जाता हूँ  
और
फिर कभी-कभी सोचने लगता हूँ 
कि
छोड़ दूँ सपनों के पीछे भागने की आदत,
कर लूँ समझौता समय से
और
दफ़न कर दूँ इच्छाओं को.

लेकिन 
सांस जब ढलने लगती है 
बेचैनी तब भीतर सुलगने लगती है ,
जो कभी रुकने नहीं देती मुझे.
जब-जब भी दुनिया के सामने बौना समझता हूँ ख़ुद को,
बुलबुले छटपटाहट के शोर मचाने लगते हैं
और
मैं दुगुनी ताकत से फिर-फिर खड़ा होने लगता हूँ
और भी बड़े सपने देखने लगता हूँ.

सपनों के ये पंख मुझे आसमान में उड़ा ले जाते हैं 
और वहां से मुझे दुनिया बौनी दिखाई पड़ती है !!

Wednesday, March 9, 2011

मन की बात

Hello Friends,
First of all thank you so much for your comments. I am happy that you liked whatever i have posted.Its more of an appreciation and encouragement for me to write and write and write. 

"लिखना अपने आप में बेहद सुकून और बेचैनी देता है. ये एक अजीब-सी दुविधा होती है. जब तक आप कुछ लिख न लो तब तक बेचैनी होती है और जब लिख लो तो एक तसल्ली-सी मिल जाती है. जैसे बीच लहरों में थपेड़े खाने के बाद नाव को कोई किनारा मिल गया हो. और उसके बाद, अपने लिखे को सुनाने का तो मज़ा ही कुछ और है.
 

'अहा! ज़िन्दगी'  के एक अंक में छपी  प्रसून जोशी की बात का सहारा लेकर अपनी बात खत्म करता हूँ . प्रसून कहते हैं कि "रचनात्मक लोग मूडी और असुरक्षित होते हैं, इसलिए आप कोई कविता लिखने के बाद उसे किसी को सुनाना चाहते हैं. आप किसी और को अपनी अन्तश्चेतना में आने देते हैं" 

I want to add one more thing to this that it's mainly because we also want to be sure about any mistakes/ areas of improvements etc.
 

Until i post some new things and ask for your feedback i think this is enough.
Thanks again....and have a great day ahead.

Tuesday, March 8, 2011

कतरन-4

सोचा था पंख फैला कर अपने
नाप लूँगा सारा आसमान
मगर यहाँ तो पंख खोलने भर की जगह नहीं

मुंबई बहुत बड़ा शहर  है !!

कतरन-3

सूरज की पहली किरण पड़ने के पहले ही
बता दिया कबूतर ने गुटुर गुटुर करते बालकनी में
निकलना होगा सवेरे ही जीवन की तलाश में

माँ,
बंद करो खिड़की, 
कबूतर चिल्ला रहे हैं
अच्छा सपना देख रहा था टूट गया !!

कतरन-2

आ गया फिर से मेरे घर पर
पुराने अखबारों की रद्दी खरीदने वाला
आज फिर चूल्हा जलेगा किसी के घर का

अखबार की ताकत आज फिर पता चली !!

कतरन-1

कितना आसान है
सपने की तरह
ज़िन्दगी को जीना.

कितना कठिन है
दवा की तरह
ज़िन्दगी के कड़वे घूंट पीना.

A meeting with Gulzar sahab

अलसायी-सी सांझ थी वो बांद्रा फोर्ट की 
जब समंदर दे रहा था उस सांझ को
सरसराहट के छपाके
वहीँ उसी किनारे झुरमुटियों के बीच बसे एक रेहटी मंच के पास
झक-सफ़ेद कुर्ते में
पाँव ऊपर पाँव धरे
और ठ्योरी पर हाथ रखे
दिखाई दी मुझे वो नज़्म
पीछा कर रहा था जिसका मैं कुछ समय से !!
शब्दों से तो फिर भी मुलाकात थी, उसके
पर आवाज़ अब भी अनजानी ही थी मुझसे !!
अचानक झन्नाए कान के परदे
नज़्म भीतर प्रवेश कर रही थी ..

अहा !! क्या नज़्म थी
गुलज़ार नाम की.
मुझसे इस नज़्म का वादा था, मिलेगी मुझको
कल शाम मिली मुझे
बांद्रा फोर्ट में

सिगरेट



 
हाथों की उँगलियों में फँसी
धीरे-धीरे सुलगती
धुआँ उड़ाती
राख बनाती
निगोड़ी मस्लहत के मानी सिखा रही है मुझको

ख़ामोशी भी आग हो सकती है …..

पेन्सिल

कापी के अनबांचे पन्नों पर
पेन्सिल से कुछ कुरेदने लगा हूँ
इन दिनों
जाने कब पेन्सिल
बन गयी ज़रिया फिर से
पेन्सिल वही
लिखना जिससे छोड़ चुका था,
तीसरी या शायद चौथी में
ताकि पेन पकड़कर
आगे बढ़ जाऊं
सयाना कहलाऊं
आज
फिर लौट रहा हूँ
अतीत में
बटोरना चाह रहा हूँ
इधर-उधर छिटकी
नादानी
वो बचपन की
और
उस अपढ़ उम्र की
शब्द
जो सीखे थे उन दिनों
और
उकेर लिया था जिन्हें
मन की कोरी किताब पर
यथा रूप
उस निपट-सहज वय में
आज अर्थ उनके खुले हैं कई,
बहुत सारे


लौटना चाहता हूँ
उस बचपन में फिर से
और
थामना चाहता हूँ
वही पेन्सिल
जो
उस ज़माने में
कापी के केनवास पर
रच देती थी सारा जहां
लौटना चाहता हूँ
उन्हीं शब्दों में
जो
पेन्सिल की जुबानी तुतलाते थे उन दिनों
लौटना चाहता हूँ
उसी सयानेपन में
जहाँ मन का पनीलापन सारा आसमान था
लौट पाना पर, अब
मुमकिन नहीं किसी भी तरह
वक़्त का ' आज ', क्योंकि
घूर रहा है मुझे,
ज़माना भी दौड़ रहा है,
फिर शब्द और बचपन भी वैसे न रहे
और पेन्सिल
अब शायद वो भी सयानी हो गयी है !!

इंतज़ार






करते हुए इंतज़ार तुम्हारे आने का
घिर आयी शाम
डूबने लगा सब्र का सूरज
लौटने लगे पंछी घोंसलों में
धीरे-धीरे हर पेड़ की शाख हरहराने लगी
दिन भर की वीरानगी अब जाने लगी
सिवाय मन की
जो आहिस्ता से पनपते
भीतर मेरे
अपना दायरा बढ़ाने लगी....

Sunday, February 27, 2011

मुलाक़ात - धनेन्द्र कावडे


रंगमंच पर किसी नाटक की संभावना लेखक, अभिनेता और निर्देशक का माध्यम मानी जाती रही है और मंच परे  प्रकाश( लाइट)  और मंच सज्जा(सेट डिज़ाइन) के सूत्र थामने वाले किरदार  
अहम् होने के बावजूद  "कर्टन कॉल" की रस्म अदायगी ही बने रहे हैं. तमाम चीज़ों की तरह प्रकाश( लाइट)  और मंच सज्जा(सेट डिज़ाइन) किसी नाटक की बेहद अहम् ज़रूरते हैं. हालाँकि तापस सेन और इब्राहीम अल्काजी से लेकर बंसी कौल और रॉबिन दास का दखल इस क्षेत्र की अहमियत का अहसास करता है तथापि यवनिका के पीछे का संयोजन-संचालन  औपचारिकता मात्र बना हुआ है.एक ऐसे समय में जब हम रंगमंच को समग्र रूप में देखने की गुंजाइश रखते हैं तो पाते हैं कि नेपथ्य के ये किरदार मंच पर सक्रिय लोगों की तुलना में गिने-चुने ही हैं.

धनेन्द्र कावडे एक ऐसे ही प्रतिभाशाली  युवा कलाकार हैं जिन्होंने नेपथ्य के  इन तमाम सूत्रों को अपनी रचनात्मक सूझ-बूझ के साथ, भारंगम, थेस्पो, पृथ्वी फेस्टिवल समेत तमाम नाट्य-उत्सवों, विज्ञापन और कला फिल्मों  के अलावा मकरंद देशपांडे,नसीरुद्दीन शाह,दिनेश ठाकुर,अस्ताद देबू जैसे नामचीन कलाकारों की कई प्रस्तुतियों में, बेहद कुशलता से साधा है.रंगमंच पर बतौर अभिनेता,निर्देशक और डिज़ाइनर सक्रिय धनेन्द्र से यवनिका के पीछे के संयोजन और डिज़ाइन के पहलुओं पर हुई  बातचीत-

प्रश्न- सबसे पहले तो आप अपने बारे में बताइए. ये बताइए की थिएटर की संभावनाओं ने कब और कैसे आपके भीतर आकार लेना शुरू किया ?

धनेन्द्र- मेरा जन्म मध्यप्रदेश के एक छोटे से क़स्बे बालाघाट में हुआ.थिएटर की दुनिया से मेरा पहला परिचय स्कूल के नाटक रहे. स्कूल में समय-समय पर होने वाली सांस्कृतिक गतिविधियों में हिस्सेदारी और फिर नाटकों की रिहर्सल पर 'प्रोक्सी' लगाने जैसी चीज़ों से शुरुआत हुई. उन दिनों नाट्य शास्त्र और संगीत के विद्वान दादा बन्देश्वर मलिक बालाघाट में रहकर ही काम कर रहे थे. वे स्वयं एक डिजाइनर,कम्पोज़र,निर्देशक,अभिनेता,चित्रकार,गायक थे. कुल मिलकर अपने आप में एक संस्था थे वो. उन्होंने सत्यजीत रे साहब के साथ बंगाल में रहकर उनकी कई फिल्मों का कला-पक्ष संभाला, उदयशंकर जी के बैले ट्रूप में भी थे तो ऐसे महान गुरु के साथ रहकर उनके मार्गदर्शन में कला की संभावनाएं मेरे भीतर जन्म लेने लगीं. मुझे शुरू से ही नाटक की तमाम चीज़ों जैसे प्रोपर्टी, वेशभूषा,मंच निर्माण,लाइटिंग,संगीत,वाद्य-यन्त्र आकर्षित करते और दादा भी इन सारी चीज़ों के बारे में और उनका महत्व समझाते रहते. मैंने इन रिहर्सलों में जाना शुरू किया, बैक-स्टेज की इन तमाम चीज़ों के बारे में जानना और उनका प्रयोग करना सीखा. बस इस तरह शुरुआत हुई.


प्रश्न- थिएटर में आगे बढ़ने और उसी से जुड़े रह कर काम करने की संभावनाओं ने कैसे रास्ते तलाशने शुरू किये आपके लिए ?

धनेन्द्र- बालाघाट में थिएटर करने की सीमित संभावनाएं थीं. तब में वहीँ रहकर इप्टा के रायपुर,भिलाई,जबलपुर मंचों से जुड़कर काम कर रहा था.नुक्कड़ नाटक भी कर रहा था. फिर 1996 में एन.एस.डी. की भोपाल में हुई एक वर्कशॉप का हिस्सा बना और वहीँ से फिर मैं भोपाल में रहकर माधव दा के साथ रंगश्री लिटिल बैले ट्रूप, अलख नन्दन  जी,आलोक चटर्जी अदि के साथ काम करने लगा. चूँकि मुझे बचपन से बैक-स्टेज में काम करने का शौक था तो शौकिया तौर पर सेट-डिज़ाइन  और लाइटिंग का काम भी करता रहता था.इन कामों के दौरान नाटक से जुडी हर चीज़ और उनकी उपयोगिता,फिर निर्देशक के साथ मत-अभिमत,कहानी और सेट के बीच अंतर्संबंध जैसी चीज़ों के बारे में मेरी समझ और पकड़ बनती गयी.
वैसे भी मंच-निर्माण/सज्जा  और लाइटिंग के काम में ज्यादा लोग थे नहीं, मेरी इन रुचियों से मुझे काम भी मिलता गया और हौसला अफजाई भी.

प्रश्न- फिर कैसे आपने मुंबई की राह थामी. शुरूआती क्या अनुभव रहे मुंबई थिएटर के ?

धनेन्द्र- भोपाल में काम करते हुए मैंने बालाघाट में थिएटर की ज़मीन तैयार करने का मन बनाया और अपने मित्रों के साथ मिलकर दादा मलिक की स्मृति में कुछ नाट्य-उत्सव किये. उसके बाद लगने लगा कि कुछ और करना चाहिए. भोपाल वापस लौटने का मन नहीं हो रहा था. फिर 2004 में मुंबई आ  गया.लोग बहुत सारे सपने लेकर यहाँ आते हैं. मैं भी अभिनेता बनने के इरादे से यहाँ आया था लेकिन मैंने ये सोच रखा था कि  जो भी काम मिलेगा वो करूँगा और इसे  'स्ट्रगल' का नाम नहीं दूंगा. सीखने की फिलोसोफी पर मुझे शुरू से विश्वास था कि कला में भले ही आपको कुछ सीखने को मिले न मिले, ज़िन्दगी में सीखने को ज़रूर बहुत कुछ मिलता है. मुंबई में शुरुआत 'पृथ्वी'  की विभिन्न गतिविधियों में अपनी हिस्सेदारी और वहां होने वाले प्लेटफ़ॉर्म परफोर्मेंस से हुई. लोगों ने थोडा-बहुत सराहा फिर वहीँ से 'पृथ्वी समर टाइम वर्कशॉप, थेस्पो आदि के लिए सेट डिज़ाइन, प्रोपर्टी और प्रोडक्शन डिज़ाइन, लाइटिंग के काम करने लगा.एक वर्कशॉप में तरह-तरह के मुखौटे बनाने का काम करने के बाद लोगों ने बैक-स्टेज के काम मुझसे करवाने शुरू कर दिए और इस तरह यहाँ एक डिज़ाइनर के तौर पर पहचान बनने लगी.

प्रश्न- आपके नज़रिए से लाइट्स और सेट डिज़ाइन का क्या महत्व है किसी नाट्य-प्रस्तुति के लिए?

धनेन्द्र- किसी अन्तरंग शाला में नाटक के लिए दोनों का महत्व है. न सिर्फ नाटक के लिए बल्कि दर्शकों के लिए भी. फिर स्टेज के हिसाब से भी यह महत्वपूर्ण हो जाता है जैसे अगर भारत भवन का अन्तरंग स्टेज है वहां स्टेज की  चौड़ाई ज्यादा है तो सेट और लाइट को उसी हिसाब से रखना होगा, कई बार स्टेज ऊपर होता है और दर्शक नीचे से देखते हैं वहां लाइट और सेट के एडजस्टमेंट  उसी हिसाब से करने होंगे जिससे दर्शक को देखने और समझने में आसानी हो.
कहानी की अगर बात करें तो सेट की डिज़ाइन उस कहानी को कहने में मदद ही करती है. अभिनेता संवादों से शब्दों को जीवंत करता है, डिज़ाइन उस वातावरण को बनाने की कोशिश  करती है जिसमें संवाद बोले जा रहे हैं. कई बार समझ न होने के कारण लोग इन चीज़ों को महत्व नहीं देते जिसके कारण अच्छी प्रस्तुति भी उठ नहीं पाती.
लाइट और सेट डिज़ाइन, दोनों निर्देशक की सोच और कल्पनाशीलता को ठोस आधार और अपेक्षित संगत देते हैं. किसी परिवेश को गढ़ने के लिए और उसका सही-सही मूड दर्शकों तक पहुँचाने के लिए दोनों का सधा हुआ इस्तेमाल ज़रूरी है.

प्रश्न- डिज़ाइन के महत्व और उससे जुड़े पहलुओं को ज़रा विस्तार से बताएं.

धनेन्द्र- सेट और लाइट की डिज़ाइन अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण है और इनका संयोजन मुश्किल भी. निर्देशक की सोच के साथ तालमेल बिठाना ज़रूरी होता है.किसी भी नाटक में अगर प्रोपर्टी(सामग्री) के बिना सेट है तो भी अप्रत्यक्ष रूप से उस नाटक में 'सेट' मौजूद है. मंच पर अभिनेता सिर्फ संवाद ही नहीं बोलता, उन संवादों के ज़रिये परिस्थितियाँ और परिवेश बनाने की कोशिश करता है. संवाद,वेशभूषा,मेक-अप,सामग्री,प्रकाश,ध्वनि,संगीत आदि सब मिलकर 'सेट' या यूँ कहें उस परिवेश को बनाने में मदद करते हैं. देखा जाये तो एक तरह से कहानी को कहने में मदद करते हैं, वो चित्र खीचने में मदद करते हैं जिनसे मिलकर एक नाटक में विजुअल्स तैयार होते हैं.
अंततः अभिनेता की ज़िम्मेदारी उस परिवेश को गढ़ने की हो जाती है और उचित रंगों के  प्रकाश(लाइट) का प्रभाव  उस परिवेश का मूड बना देता है. प्रतीक-बिम्ब के रूप में, वास्तविक,आभासी कई तरह के प्रभाव बनाये जा सकते हैं, सेट और लाइट की डिज़ाइन से. इस तरह डिज़ाइन कथ्य को सपोर्ट ही करती है.

प्रश्न - आपके हिसाब से किसी नाटक के सेट डिज़ाइन की बुनियादी अप्रोच क्या होनी चाहिए ?

धनेन्द्र- देखिये मेरे हिसाब से नाटक की कहानी के दो रूप होते हैं, एक टेक्स्ट(कथन) और दूसरा सब-टेक्स्ट(उप-कथन). एक बहुत बड़ा विश्लेषण यह की किरदार कहता टेक्स्ट है और सोचता सब-टेक्स्ट है. मतलब कि संवाद किसी एक दृश्य-फ्रेम में बोले जाते हैं और वो परिवेश जिसे 'सेट' के माध्यम से बनाया जाता है वो दृश्य का भीतरी रूप होता है. मेरे हिसाब से यही कि नाटक की सीमा में जिसमें फिल्म की तरह हर दृश्य के लिए सेट नहीं बनाया जा सकता, उसमें  कथन और उप-कथन का आतंरिक और बाह्य रूप दोनों को समझना एक डिज़ाइनर के लिए ज़रूरी है. बुनियादी यही अप्रोच होनी चाहिए समग्रता में , जिसके कारण कहानी का हाई-पॉइंट और निर्देशक की सोच केंद्र में आ जाये और फिर जिसके आस-पास सेट बनाया जाये.मेरी डिज़ाइन की अप्रोच एक अभिनेता,एक सेट-डिज़ाइनर और एक निर्देशक इन तीनों  का मिला-जुला  रूप है. चूँकि मैं लाइट डिज़ाइन भी करता हूँ  तो मुझे समझने  में और मदद मिलती  है कि बनाया हुआ सेट, लाइट्स को कितना  सपोर्ट कर रहा है. अंत  में कोशिश यही होती  है कि कहानी को सपोर्ट करते हुए बनाया हुआ सेट ख़ुद  भी बात करे. अगर कहीं  किसी  सामग्री का इस्तेमाल  हुआ है तो वो चीज़ अपनी प्रासंगिकता  ख़ुद  बयान  करे  

प्रश्न- सेट डिज़ाइन में बिम्ब-प्रतीक की बात आपने की. ये कितने ज़रूरी हैं और इनका इस्तेमाल कैसे होना चाहिए?
धनेन्द्र- किसी भी नाटक में एब्ज़रडीटी  के प्रतीक और उनकी सोच का संतुलन ज़रूरी है. कई बार नाटक में प्रतीक-बिम्ब समझ भी नहीं आते दर्शकों को, फिर हर व्यक्ति के सोचने-समझने के, इंटरप्रिटेशन  के अपने तरीके होते हैं तो प्रतीक ऐसे होने चाहिए जो आम-फहम हों और जिनके साथ कलाकार-दर्शकों का तालमेल हो.
मेरा मानना है की सिम्बोल उतने ही  होने चाहिए जितनी की उनकी ज़रुरत हो, ना कम ना बहुत ज्यादा.  ऐसे प्रतीक हों जो दर्शकों को आसानी से समझ आयें. ये एक डिज़ाइनर पर भी निर्भर करता है कि वो कितनी रचनात्मकता से इन प्रतीकों को दिखा रहा है. मसलन लाल रंग की रोशनी ख़तरा,क्रोध,सेक्स,हिंसा जैसी  परिस्तिथियों को दर्शाने के लिए प्रयोग में लाई जा सकती है,बाकी तो सब कुछ सामान्य होता ही है जैसे रात के दृश्य दिखाने के लिए हल्की नीली रोशनी, सुबह के दृश्य के लिए हाई टोंड लाइट. ज़रूरी यह है कि आप दिखाना क्या चाहते हैं. प्रतीक ऐसे होने चाहिए जो सब-टेक्स्ट को सपोर्ट करते हुए कहानी कहने में मदद करें.

प्रश्न- सेट डिज़ाइन की चुनौतियाँ  क्या हैं ?

धनेन्द्र- तमाम तरह की चुनौतियाँ  हैं. पहली  तो ये कि सेट डिज़ाइनर और निर्देशक का तारतम्य  बना रहे. कई बार  दोनों की सोच मेल  नहीं खाती है. यह भी कि वो कथ्य को सपोर्ट करते हुए अलग से हाईलाइट ना हो. फिर नाटक में पैसा  तो है नहीं तो वित्तीय  चुनौतियाँ  तो होती ही हैं. लोग  चाहते हैं कि कम से कम बजट  में अच्छे से अच्छा  सेट बन  जाये. फिर आजकल  नाटकों के प्रदर्शन एक जगह  से दूसरी जगह  होने लगे  हैं जिसके कारण सामग्री का ट्रांसपोर्टेशन  भी एक चुनौती  है. कम से कम सामान  में ज़्यादा  से ज़्यादा चीज़ें  बन  जायें  ये भी ध्यान रखना  होता है. बाकी रचनात्मक चुनौतियाँ तो हैं ही.

प्रश्न- क्या कारण है कि किसी भी मंचन के लिए इतना ज़रूरी होते हुए भी लाइट और सेट डिज़ाइन की विधा में नए लोग नहीं हैं और इसे उपेक्षित माना जाता रहा है ?

धनेन्द्र- देखिये ये सब पहले भी उपेक्षित नहीं था और आज भी नहीं है. हाँ इतना ज़रूर है कि कई लोगों को इस विधा में आगे बढ़ने के अवसर नज़र नहीं आते, इसलिए  नेपथ्य का नायक बनने में लोग उत्सुक नहीं हैं. लाइट और सेट डिज़ाइन तो नाटक की अहम् ज़रूरतें हैं और नुक्कड़ नाटकों को छोड़ दिया जाये तो किसी भी नाटक के लिए अनिवार्य भी जिनके बिना शायद प्रस्तुति संभव नहीं. 
जहाँ तक उपेक्षा का सवाल है तो इसे वो ही लोग अनदेखा करते हैं जो इन चीज़ों की अहमियत के बारे में गंभीरता से नहीं सोचते. तापस सेन,इब्राहीम अल्काजी,बाबा कारंत, हबीब साहब,रतन थियम जैसे शीर्ष रंगकर्मियों ने कभी इसे दोयम दर्जे का नहीं माना. नाटक के प्रारंभ होने के पहले मंच पर बना हुआ सेट ही उस नाटक का पहला इम्प्रेशन होता है, अभिनेता तो उस परिवेश में बाद में प्रवेश करता है.
मेरा मानना है कि जितनी गंभीरता से नाटक का फार्मेशन ,ब्लॉकिंग,संवाद, आदि पर काम होता है उतनी ही बारीकी से इन चीज़ों पर भी काम होना चाहिए.होता यही है कि लाइट के साथ नाटक का पूर्वाभ्यास एक औपचारिकता मात्र होती है.  
हबीब साहब और थियम साहब को इस मामले में मैं अपना आदर्श मानता हूँ. इनके नाटकों की डिज़ाइन में  जादू जैसा होता है कुछ. लाइट्स,सेट,प्रोपर्टी,टेक्सचर,संगीत,ध्वनि सबकुछ कमाल का एकदम. यही मेरे हिसाब से डिज़ाइन की ख़ासियत है, तभी तो छत्तीसगढ़ी और मणिपुरी बोलियों में होने के बावजूद भाषा कभी बंधक नहीं बनीं इनके नाटकों में. वो परिवेश, वो वातावरण सब कुछ कितना सहज लगा इनके नाटकों में. खास बात यह भी कि उन्हें पता होता कि नाटक में क्या-क्या चाहिए और क्या-क्या नहीं. उतनी ही चीज़ों का प्रयोग होता जितनी कि ज़रुरत होती. ऐसा ही कुछ पणिक्कर  साहब के नाटकों में भी होता है.

प्रश्न- थिएटर में लाइट के लिए आधुनिक तकनीक के इस्तेमाल पर आपकी क्या राय है ?

धनेन्द्र- तकनीक से सुविधा तो होती ही है.  पहले प्रोग्रामिंग बोर्ड नहीं होते थे जिनके कारण एक ही व्यक्ति लाइट रूम में बैठकर लीवर,ट्रिगर आदि से जूझ रहा होता या फिर कोई सहायक होता था साथ में. प्रोग्रामिंग बोर्ड के आ जाने से आज एक ही बटन से पूरे नाटक की लाइट ऑपरेट की जा सकती है. ये लाइट डिज़ाइनर पर निर्भर करता है कि तकनीक का कितना इस्तेमाल करे. लेकिन अभी ज़्यादा तकनीक का इस्तेमाल ज़रूरी भी नहीं क्योंकि नाटक में धीरे-धीरे मूवमेंट होते हैं, जैसे फेड-इन,फेड-आउट,एंट्री,एक्सिट और ये मूवमेंट अभिनेता के रिदम से मिलकर बनाये जाते हैं तो फिलहाल तो लाइट के लिए तकनीक और हाई स्पीड मूवमेंट का उपयोग ज़रूरी नहीं है.



मैं

जिस्म के अन्दर पनपते सपनों के आगे और  जिस्म के बाहर सपनों के पीछे दौड़ते-भागते सांसें कभी...